दो अलग लफ़्ज़ नहीं हिज्र ओ विसाल
एक में एक की गोयाई है
Mir Taqi Mir
Javed Akhtar
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Mohsin Naqvi
Gulzar
Ahmad Faraz
Jaun Eliya
Faiz Ahmad Faiz
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मेरी मिट्टी का नसब बे-सर-ओ-सामानी से
तिरे होंटों के सहरा में तिरी आँखों के जंगल में
हर इक जानिब उन आँखों का इशारा जा रहा है
मैं महफ़िल-बाज़ घबरा कर हुआ तन्हाई वाला
मैं तमाम गर्द-ओ-ग़ुबार हूँ मुझे मेरी सूरत-ए-हाल दे
चराग़-ए-शहर से शम-ए-दिल-ए-सहरा जलाना
कैसी बला-ए-जाँ है ये मुझ को बदन किए हुए
जो इश्क़ चाहता है वो होना नहीं है आज
मेरे हर मिस्रे पे उस ने वस्ल का मिस्रा लगाया
रात बहुत शराब पी रात बहुत पढ़ी नमाज़
कौन सी ऐसी ख़ुशी है जो मिली हो एक बार
मिरे सुबूत बहे जा रहे हैं पानी में