जब उस को देखते रहने से थकने लगता हूँ
तो अपने ख़्वाब की पलकें झपकने लगता हूँ
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हम अपने आप को अपने से कम भी करते रहते हैं
तभी वहीं मुझे उस की हँसी सुनाई पड़ी
मिला है जिस्म कि उस का गुमाँ मिला है मुझे
ज़ख़्म
महफ़िल में अब के आओ तो ऐसी ख़ता न हो
ना-रसाई
बहुत सी आँखें लगीं हैं और एक ख़्वाब तय्यार हो रहा है
तेरा भला हो तू जो समझता है मुझ को ग़ैर
हम ने परिंद-ए-वस्ल के पर काट डाले हैं
तेरे सूरज को तिरी शाम से पहचानते हैं
बे-रंग बड़े शहर की हस्ती भी वहीं थी
ये सारे ख़ूबसूरत जिस्म अभी मर जाने वाले हैं