जिसे भी प्यास बुझानी हो मेरे पास रहे
कभी भी अपने लबों से छलकने लगता हूँ
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मेहरबाँ मौत ने मरतों को जिला रक्खा है
तिरे होंटों के सहरा में तिरी आँखों के जंगल में
काबा-ए-दिल दिमाग़ का फिर से ग़ुलाम हो गया
गर अपने आप में इंसान बढ़ता जा रहा है
जिस को जैसा भी है दरकार उसे वैसा मिल जाए
ख़ाक ओ ख़ूँ की नई तंज़ीम में शामिल हो जाओ
मिरी मोहब्बत में सारी दुनिया को इक खिलौना बना दिया है
हर गली कूचे में रोने की सदा मेरी है
सब मिरा आब-ए-रवाँ किस के इशारों पे बहा जाता है
किस सलीक़े से वो मुझ में रात-भर रह कर गया
कुछ भी न कहना कुछ भी न सुनना लफ़्ज़ में लफ़्ज़ उतरने देना
आँखों की प्यालियों में बारिश मची हुई है