जिस्म का कूज़ा है अपना और न ये दरिया-ए-जाँ
जो लगा लेगा लबों से उस में भर जाएँगे हम
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तराना-ए-रेख़्ता
तू मुझ को जो इस शहर में लाया नहीं होता
फिर सोच के ये सब्र किया अहल-ए-हवस ने
वस्ल की रात में हम रात में बह जाते हैं
झगड़े ख़ुदा से हो गए अहद-ए-शबाब में
क़िस्सा-ए-आदम में एक और ही वहदत पैदा कर ली है
ना-रसाई
कूज़ा-गर
फ़रार हो गई होती कभी की रूह मिरी
मैं अपने रू-ए-हक़ीक़त को खो नहीं सकता
बस एक लम्स कि जल जाएँ सब ख़स-ओ-ख़ाशाक
अभी नहीं कि अभी महज़ इस्तिआरा बना