हिजाब उस के मिरे बीच अगर नहीं कोई
तो क्यूँ ये फ़ासला-ए-दरमियाँ नहीं जाता
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ये और बात कि वो तिश्ना-ए-जवाब रहा
उसे समझा-बुझा के हम तो हारे
हर रोज़ दिखाई दें सब लोग वहीं लेकिन
जाने क्या ऐसा उसे मुझ में नज़र आया था
राह-ए-गुम-कर्दा सर-ए-मंज़िल भटक कर आ गया
इस राज़ के बातिन तक पहुँचा ही नहीं कोई
किसी बहाने भी दिल से अलम नहीं जाता
गो इस सफ़र में थक के बदन चूर हो गया
कटी पहाड़ सी शब इंतिज़ार करते हुए
रौशनी से किस तरह पर्दा करेंगे
मसअला ये है कि उस के दिल में घर कैसे करें
ख़याल उस का कहाँ से कहाँ नहीं जाता