नफ़रत की ही इक फ़स्ल यहाँ फलती है
सच ये है सियासत ही हमें छलती है
दफ़्तर तो सब अंदर से बहुत हैं ठंडे
सड़कों पे मगर गर्म हवा चलती है
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समुंदर सर पटक कर मर रहा था
बग़ैर नक़्शे के सारे मकान लगते हैं
दिया जला के कोई चाँद पर रखा होगा
लिहाफ़
वाईपर
हिन्दोस्तान छोड़ दो
अब के रूठे तो मनाने नहीं आया कोई
चौथी का जोड़ा
इश्क़ किया तो अपनी ही नादानी थी
कोई तो ज़िद में ये आ कर कभी कहे हम से
घर की मुश्किल कोई हल चाहती है