बग़ैर सम्त के चलना भी काम आ ही गया
फ़सील-ए-शहर के बाहर भी एक दुनिया थी
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'गुलनार' मस्लहत की ज़बाँ में न बात कर
दिल का हर ज़ख़्म तिरी याद का इक फूल बने
वो चराग़-ए-ज़ीस्त बन कर राह में जलता रहा
शायद अभी कमी सी मसीहाइयों में है
आँख में अश्क लिए ख़ाक लिए दामन में
किन शहीदों के लहू के ये फ़रोज़ाँ हैं चराग़
शजर-ए-उम्मीद भी जल गया वो वफ़ा की शाख़ भी जल गई
हमें भी अब दर ओ दीवार घर के याद आए
याद करने का तुम्हें कोई इरादा भी न था
एक परछाईं तसव्वुर की मिरे साथ रहे
न साथ देगा कोई राह आश्ना मेरा