दिल का हर ज़ख़्म तिरी याद का इक फूल बने
मेरे पैराहन-ए-जाँ से तिरी ख़ुशबू आए
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'गुलनार' मस्लहत की ज़बाँ में न बात कर
सफ़र का रंग हसीं क़ुर्बतों का हामिल हो
आँसू भी वही कर्ब के साए भी वही हैं
शजर-ए-उम्मीद भी जल गया वो वफ़ा की शाख़ भी जल गई
क्या बात है क्यूँ शहर में अब जी नहीं लगता
किन शहीदों के लहू के ये फ़रोज़ाँ हैं चराग़
बग़ैर सम्त के चलना भी काम आ ही गया
कहिए आईना-ए-सद-फ़स्ल-ए-बहाराँ तुझ को
न पूछ ऐ मिरे ग़म-ख़्वार क्या तमन्ना थी
दिल ने इक आह भरी आँख में आँसू आए
एक आँसू याद का टपका तो दरिया बन गया