क्या बात है क्यूँ शहर में अब जी नहीं लगता
हालाँकि यहाँ अपने पराए भी वही हैं
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न पूछ ऐ मिरे ग़म-ख़्वार क्या तमन्ना थी
किन शहीदों के लहू के ये फ़रोज़ाँ हैं चराग़
दिल ने इक आह भरी आँख में आँसू आए
न साथ देगा कोई राह आश्ना मेरा
वो चराग़-ए-ज़ीस्त बन कर राह में जलता रहा
शायद अभी कमी सी मसीहाइयों में है
हमें भी अब दर ओ दीवार घर के याद आए
एक परछाईं तसव्वुर की मिरे साथ रहे
शजर-ए-उम्मीद भी जल गया वो वफ़ा की शाख़ भी जल गई
सफ़र का रंग हसीं क़ुर्बतों का हामिल हो
बग़ैर सम्त के चलना भी काम आ ही गया
ये तिलिस्म-ए-मौसम-ए-गुल नहीं कि ये मोजज़ा है बहार का