एक परछाईं तसव्वुर की मिरे साथ रहे
मैं तुझे भूलूँ मगर याद मुझे तू आए
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क्या बात है क्यूँ शहर में अब जी नहीं लगता
बग़ैर सम्त के चलना भी काम आ ही गया
सफ़र का रंग हसीं क़ुर्बतों का हामिल हो
न साथ देगा कोई राह आश्ना मेरा
आँख में अश्क लिए ख़ाक लिए दामन में
दिल का हर ज़ख़्म तिरी याद का इक फूल बने
'गुलनार' मस्लहत की ज़बाँ में न बात कर
किन शहीदों के लहू के ये फ़रोज़ाँ हैं चराग़
शजर-ए-उम्मीद भी जल गया वो वफ़ा की शाख़ भी जल गई
वो चराग़-ए-ज़ीस्त बन कर राह में जलता रहा
याद करने का तुम्हें कोई इरादा भी न था