ज़ाब्ते और ही मिस्दाक़ पे रक्खे हुए हैं
आज-कल सिदक़-ओ-सफ़ा ताक़ पे रक्खे हुए हैं
Mir Taqi Mir
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रज़ा
रंग-ओ-बू का शौक़ आशोब-ए-हवा में ले गया
फ़ाल
मोहब्बत के सिवा हर्फ़-ओ-बयाँ से कुछ नहीं होता
आईने का मुँह भी हैरत से खुला रह जाएगा
जाने वालों की कमी पूरी कभी होती नहीं
आँधी में बिसात उलट गई है
चलूँ तो मस्लहत ये कह के पाँव थाम लेती है
अक्स-ए-रौशन तिरा आईना-ए-जाँ में रक्खा
उक़ाबी रूह