कलाम-ए-शायर-ए-मश्रिक़ से फ़ाल इक रोज़ ली मैं ने
हुआ दुश्वार जब जीना किराए के मकानों में
कहाँ जाऊँ करूँ क्या जब ये पूछा तो जवाब आया
तू शाहीं है बसेरा कर पहाड़ों की चटानों में
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फ़ाल
रज़ा
कौन पस-ए-मंज़र में उजड़े पैकरों को देखता
अक्स-ए-रौशन तिरा आईना-ए-जाँ में रक्खा
दिए से यूँ दिया जलता रहेगा
कितनी सदियाँ ना-रसी की इंतिहा में खो गईं
आँधी में बिसात उलट गई है
ज़ाब्ते और ही मिस्दाक़ पे रक्खे हुए हैं
ज़ाहिर मुसाफ़िरों का हुनर हो नहीं रहा
हम शाद हों क्या जब तक आज़ार सलामत है
चलूँ तो मस्लहत ये कह के पाँव थाम लेती है