ख़ुदी को ले गए कुछ आदमी इतनी बुलंदी पर
तकब्बुर में लगे कहने मक़ाम-ए-किबरिया क्या है
अब ऐसी सूरत-ए-हालात में कैसे ये है मुमकिन
ख़ुदा बंदे से ख़ुद पूछे बता तेरी रज़ा क्या है
Allama Iqbal
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मोहब्बत के सिवा हर्फ़-ओ-बयाँ से कुछ नहीं होता
फ़ाल
वफ़ा की तश्हीर करने वाला फ़रेब-गर है सितम तो ये है
ज़ाहिर मुसाफ़िरों का हुनर हो नहीं रहा
कितनी सदियाँ ना-रसी की इंतिहा में खो गईं
तिरी तलब ने फ़लक पे सब के सफ़र का अंजाम लिख दिया है
रज़ा
रंग-ओ-बू का शौक़ आशोब-ए-हवा में ले गया
ज़ाब्ते और ही मिस्दाक़ पे रक्खे हुए हैं
आईने का मुँह भी हैरत से खुला रह जाएगा
हम शाद हों क्या जब तक आज़ार सलामत है
जाने वालों की कमी पूरी कभी होती नहीं