गो बरसती नहीं सदा आँखें
अब्र तो बारा मास होता है
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दिन कुछ ऐसे गुज़ारता है कोई
एक सन्नाटा दबे-पाँव गया हो जैसे
मैं काएनात में
लैंडस्केप
आप के बा'द हर घड़ी हम ने
शाम से आज साँस भारी है
ऐसा ख़ामोश तो मंज़र न फ़ना का होता
नज़्म
दिल में ऐसे ठहर गए हैं ग़म
शाख़ें
मैं चुप कराता हूँ हर शब उमडती बारिश को
वो एक दिन एक अजनबी को