ये रोटियाँ हैं ये सिक्के हैं और दाएरे हैं
ये एक दूजे को दिन भर पकड़ते रहते हैं
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चम्पई धूप
शाम से आज साँस भारी है
आग में क्या क्या जला है शब भर
एक और रात
सीलन
कहीं तो गर्द उड़े या कहीं ग़ुबार दिखे
कोई ख़ामोश ज़ख़्म लगती है
मैं काएनात में
एक सन्नाटा दबे-पाँव गया हो जैसे
किर्चें
शाम से आँख में नमी सी है
गिरहें