इस जहाँ में सिफ़त-ए-इश्क़ से मौसूफ़ हैं हम
न करो ऐब हमारे हुनर-ए-ज़ाती का
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हम न जानें किस तरफ़ काबा है और कीधर है दैर
जिस का मयस्सर न था भर के नज़र देखना
इश्क़ में ख़्वाब का ख़याल किसे
दुनिया का व दीं का हम को क्या होश
खेलें आपस में परी-चेहरा जहाँ ज़ुल्फ़ें खोल
साक़ी हैं रोज़-ए-नौ-बहार यक दो सह चार पंज ओ शश
सज्दा-गाह-ए-बरहमन और शैख़ हैं दैर-ओ-हरम
जान कर कहता है हम से अपने जाने की ख़बर
एक-दम ख़ुश्क मिरा दीदा-ए-तर है कि नहीं
अज़ीज़ो तुम न कुछ उस को कहो हुआ सो हुआ
क्या कहूँ तुझ से मिरी जान मैं शब का अहवाल