इश्क़ में ख़्वाब का ख़याल किसे
न लगी आँख जब से आँख लगी
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मोहब्बत एक तरह की निरी समाजत है
निभे थी आन उन्हों की हमेशा इश्क़ में ख़ूब
दिल ने पाया जो मिरे मुज़्दा तिरी पाती का
कब तलक पीवेगा तू तर-दामनों से मिल के मुल
ता-अबद ख़ाली रहे या-रब दिलों में उस की जा
मैं 'हसरत' मुज्तहिद हूँ बुत-परस्ती की तरीक़त का
न ग़रज़ नंग से रखते हैं न कुछ नाम से काम
ज़ुल्फ़-ए-कलमूँही को प्यारे इतना भी सर मत चढ़ा
ना-ख़लफ़ बस-कि उठी इश्क़ ओ जुनूँ की औलाद
आश्ना कब हो है ये ज़िक्र दिल-ए-शाद के साथ
गुल कभू हम को दिखाती है कभी सर्व-ओ-समन
हक़ अदा करना मोहब्बत का बहुत दुश्वार है