मैं 'हसरत' मुज्तहिद हूँ बुत-परस्ती की तरीक़त का
न पूछो मुझ को कैसा कुफ़्र है इस्लाम क्या होगा
Faiz Ahmad Faiz
Parveen Shakir
Mohsin Naqvi
Ahmad Faraz
Jaun Eliya
Mir Taqi Mir
Allama Iqbal
Anwar Masood
Habib Jalib
Wasi Shah
Rahat Indori
Javed Akhtar
Love Poetry
Funny Poetry
Sad Poetry
Rain Poetry
Sharabi Poetry
Friends Poetry
(637) Peoples Rate This
यार इब्तिदा-ए-इश्क़ से बे-ज़ार ही रहा
काफ़िर-ए-इश्क़ हूँ ऐ शैख़ पे ज़िन्हार नहीं
दुनिया का व दीं का हम को क्या होश
करे आशिक़ पे वो बेदाद जितना उस का जी चाहे
अज़ीज़ो तुम न कुछ उस को कहो हुआ सो हुआ
चाहे सो हमें कर तू गुनहगार हैं तेरे
न छुटा हाथ से यक लहज़ा गरेबाँ मेरा
उठूँ दहशत से ता महफ़िल से उस की
है याद तुझ से मेरा वो शर्ह-ए-हाल देना
खेलें आपस में परी-चेहरा जहाँ ज़ुल्फ़ें खोल
है रश्क-ए-वस्ल से ग़म-ए-दिलदार ही भला
एक-दम ख़ुश्क मिरा दीदा-ए-तर है कि नहीं