मोहब्बत एक तरह की निरी समाजत है
मैं छोड़ूँ हूँ तिरी अब जुस्तुजू हुआ सो हुआ
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सौगंद है हसरत मुझे एजाज़-ए-सुख़न की
कम-तर या बेशतर गए हम
क्या कहूँ तुझ से मिरी जान मैं शब का अहवाल
हर तरफ़ है उस से मेरे दिल के लग जाने में धूम
है रश्क-ए-वस्ल से ग़म-ए-दिलदार ही भला
खेलें आपस में परी-चेहरा जहाँ ज़ुल्फ़ें खोल
उठूँ दहशत से ता महफ़िल से उस की
जान कर कहता है हम से अपने जाने की ख़बर
रहे है नक़्श मेरे चश्म-ओ-दिल पर यूँ तिरी सूरत
न छुटा हाथ से यक लहज़ा गरेबाँ मेरा
हम न जानें किस तरफ़ काबा है और कीधर है दैर
हुस्न को उस के ख़त का दाग़ लगा