अफ़्ज़ूँ हैं बयाँ से मोजिज़ात-ए-हैदर
हलाल मुहिम्मात है ज़ात-ए-हैदर
तौरेत इंजील और ज़बूर ओ क़ुरआन
हैं एक रुबाई सिफ़ात-ए-हैदर
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बरहम है जहाँ अजब तलातुम है आज
ज़ाहिर वही उल्फ़त के असर हैं अब तक
अख़्तर से भी आबरू में बेहतर है ये अश्क
बालों पे ग़ुबार-ए-शेब ज़ाहिर है अब
दामाद-ए-रसूल की शहादत है आज
अफ़ज़ल कोई मुर्तज़ा से हिम्मत में नहीं
राही तरफ़-ए-आलम-ए-बाला हूँ मैं
ला-रैब बहिश्तियों का मरजा है ये
गुलशन में फिरूँ कि सैर-ए-सहरा देखूँ
उल्फ़त हो जिसे उसे वली कहते हैं
अकबर ने जो घर मौत का आबाद किया