अहबाब से उम्मीद है बेजा मुझ को
उम्मीद-ए-अता-ए-हक़ है ज़ेबा मुझ को
क्या उन से तवक़्क़ो कि मियान-ए-मरक़द
छोड़ आएँगे इक रोज़ ये तन्हा मुझ को
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उर्यां सर-ए-ख़ातून-ए-ज़मन है अब तक
इतना न ग़ुरूर कर कि मरना है तुझे
दामाद-ए-रसूल की शहादत है आज
अकबर ने जो घर मौत का आबाद किया
ऐ ख़ालिक़-ए-ज़ुल-फ़ज़्ल-ओ-करम रहमत कर
ठोकर भी न मारेंगे अगर ख़ुद-सर है
ग़फ़लत में न खो उम्र कि पछताएगा
उल्फ़त हो जिसे उसे वली कहते हैं
ज़ाहिर वही उल्फ़त के असर हैं अब तक
थे ज़ीस्त से अपनी हाथ धोए सज्जाद
जो मर्तबा अहमद के वसी का देखा
दिल ने ग़म-ए-बे-हिसाब क्या क्या देखा