ऐ ख़ालिक़-ए-ज़ुल-फ़ज़्ल-ओ-करम रहमत कर
ऐ दाफे-ए-हर-रंज-ओ-अलम रहमत कर
सब्क़त है सदा ग़ज़ब पे रहमत को तिरी
अपनी तुझे रहमत की क़सम रहमत कर
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कुछ मुल्क-ए-अदम में रंज का नाम न था
अब ज़ेर-ए-क़दम लहद का बाब आ पहुँचा
इतना न ग़ुरूर कर कि मरना है तुझे
मय-ख़ान-ए-कौसर का शराबी हूँ मैं
अफ़्ज़ूँ हैं बयाँ से मोजिज़ात-ए-हैदर
दुख में हर शब कराहता हूँ या-रब
अहबाब से उम्मीद है बे-जा मुझ को
राही तरफ़-ए-आलम-ए-बाला हूँ मैं
ला-रैब बहिश्तियों का मरजा है ये
फ़ुर्सत कोई साअत न ज़माने से मिली
ग़फ़लत में न खो उम्र कि पछताएगा
सर खींच न शमशीर-ए-कशीदा की तरह