इतना न ग़ुरूर कर कि मरना है तुझे
आराम अभी क़ब्र में करना है तुझे
रख ख़ाक पे सोच कर ज़रा पाँव 'अनीस'
इक रोज़ सिरात से गुज़रना है तुझे
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खींचे मुझे मौत ज़िंदगानी की तरफ़
दुश्मन को भी दे ख़ुदा न औलाद का दाग़
क़तरे हैं ये सब जिस के वो दरिया है अली
आदम को अजब ख़ुदा ने रुत्बा बख़्शा
अकबर ने जो घर मौत का आबाद किया
बालों पे ग़ुबार-ए-शेब ज़ाहिर है अब
ठोकर भी न मारेंगे अगर ख़ुद-सर है
उर्यां सर-ए-ख़ातून-ए-ज़मन है अब तक
ला-रैब बहिश्तियों का मरजा है ये
सोज़-ए-ग़म-ए-दूरी ने जला रक्खा है
अंदाज़-ए-सुख़न तुम जो हमारे समझो
ऐ शाह के ग़म में जान खोने वालो