बालों पे ग़ुबार-ए-शेब ज़ाहिर है अब
हुशियार अनीस तू मुसाफ़िर है अब
पैदा है सपेदी सहर-ए-पीरी की
ले ख़्वाब से चौंक रात आख़िर है अब
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मय-ख़ान-ए-कौसर का शराबी हूँ मैं
खींचे मुझे मौत ज़िंदगानी की तरफ़
अफ़ज़ल कोई मुर्तज़ा से हिम्मत में नहीं
क्या दस्त-ए-मिज़ा को हाथ आई तस्बीह
ऐ शाह के ग़म में जान खोने वालो
ला-रैब बहिश्तियों का मरजा है ये
अख़्तर से भी आबरू में बेहतर है ये अश्क
आँख अब्र-ए-बहारी से लड़ी रहती है
बरहम है जहाँ अजब तलातुम है आज
गुलशन में सबा को जुस्तुजू तेरी है
अब हिन्द की ज़ुल्मत से निकलता हूँ मैं
क़तरे हैं ये सब जिस के वो दरिया है अली