क़तरे हैं ये सब जिस के वो दरिया है अली
पिन्हाँ है कभी तो गाह पैदा है अली
होता है गुमाँ ख़ुदा का जिस पर हर बार
अल्लाह अल्लाह ऐसा बंदा है अली
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दुख में हर शब कराहता हूँ या-रब
ला-रैब बहिश्तियों का मरजा है ये
ग़फ़लत में न खो उम्र कि पछताएगा
दुनिया भी अजब सरा-ए-फ़ानी देखी
गुलशन में सबा को जुस्तुजू तेरी है
क्यूँ-कर दिल-ए-ग़म-ज़दा न फ़रियाद करे
अब गर्म ख़बर मौत के आने की है
फ़ुर्सत कोई साअत न ज़माने से मिली
अख़्तर से भी आबरू में बेहतर है ये अश्क
थे ज़ीस्त से अपनी हाथ धोए सज्जाद
अंदाज़-ए-सुख़न तुम जो हमारे समझो
बे-दीनों को मुर्तज़ा ने ईमाँ बख़्शा