बे-दीनों को मुर्तज़ा ने ईमाँ बख़्शा
दीन-दारों को जन्नत का गुलिस्ताँ बख़्शा
बख़्शिश का है ख़ात्मा कि ख़ातम दे कर
दरवेश को रुत्बा-ए-सुलैमाँ बख़्शा
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दश्त-ए-विग़ा में नूर-ए-ख़ुदा का ज़ुहूर है
आदम को ये तोहफ़ा ये हदिया न मिला
अब ज़ेर-ए-क़दम लहद का बाब आ पहुँचा
क़तरे हैं ये सब जिस के वो दरिया है अली
राही तरफ़-ए-आलम-ए-बाला हूँ मैं
ग़फ़लत में न खो उम्र कि पछताएगा
इतना न ग़ुरूर कर कि मरना है तुझे
अख़्तर से भी आबरू में बेहतर है ये अश्क
आला रुत्बे में हर बशर से पाया
गुलशन में फिरूँ कि सैर-ए-सहरा देखूँ
ऐ शाह के ग़म में जान खोने वालो
अब वक़्त-ए-सुरूर- ओ फ़रहत-अंदोज़ी है