दुनिया भी अजब सरा-ए-फ़ानी देखी
हर चीज़ यहाँ की आनी-जानी देखी
जो आ के न जाए वो बुढ़ापा देखा
जो जा के न आए वो जवानी देखी
Javed Akhtar
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क्यूँ-कर दिल-ए-ग़म-ज़दा न फ़रियाद करे
दामाद-ए-रसूल की शहादत है आज
कुछ मुल्क-ए-अदम में रंज का नाम न था
हर ग़ुंचे से शाख़-ए-गुल है क्यूँ नज़्र-ब-कफ़
फ़ुर्सत कोई साअत न ज़माने से मिली
अंदाज़-ए-सुख़न तुम जो हमारे समझो
ज़ाहिर वही उल्फ़त के असर हैं अब तक
जिस पर कि नज़र लुत्फ़ की शब्बीर करें
अख़्तर से भी आबरू में बेहतर है ये अश्क
किस तरह करे न एक आलिम अफ़्सोस
अफ़्ज़ूँ हैं बयाँ से मोजिज़ात-ए-हैदर