हर ग़ुंचे से शाख़-ए-गुल है क्यूँ नज़्र-ब-कफ़
है रोज़ ख़िलाफ़त-ए-शहंशाह-ए-नजफ़
हैदर हुए जानशीन-ए-ख़ास-ए-नबवी
है आज तुलू-ए-नय्यर-ए-बुर्ज-ए-शरफ़
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अश्कों में नहाओ तो जिगर ठंडे हों
ऐ शाह के ग़म में जान खोने वालो
दुनिया भी अजब सरा-ए-फ़ानी देखी
ज़ाहिर वही उल्फ़त के असर हैं अब तक
शब्बीर का ग़म ये जिस के दिल पर होगा
सर खींच न शमशीर-ए-कशीदा की तरह
अकबर ने जो घर मौत का आबाद किया
सोज़-ए-ग़म-ए-दूरी ने जला रक्खा है
हो जाती है सहल पेश-ए-दाना मुश्किल
ऐ मोमिनो फ़ातिमा का प्यारा शब्बीर
हुशियार है सब से बा-ख़बर है जब तक
बे-गोर-ओ-कफ़न बाप का लाशा देखा