हर-चंद कि ख़स्ता ओ हज़ीं है आवाज़
पर ताज़िया-दार शाह-ए-दीं है आवाज़
निकले न अगर कुंज-ए-दहन से तो बजा
मातम के हैं दिन सोग-नशीं है आवाज़
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जो मर्तबा अहमद के वसी का देखा
अब ख़्वाब से चौंक वक़्त-ए-बेदारी है
जिस पर कि नज़र लुत्फ़ की शब्बीर करें
आदम को ये तोहफ़ा ये हदिया न मिला
इतना न ग़ुरूर कर कि मरना है तुझे
क़तरे हैं ये सब जिस के वो दरिया है अली
सोज़-ए-ग़म-ए-दूरी ने जला रक्खा है
गुलशन में सबा को जुस्तुजू तेरी है
गुलज़ार-ए-जहाँ से बाग़-ए-जन्नत में गए
ला-रैब बहिश्तियों का मरजा है ये
आँख अब्र-ए-बहारी से लड़ी रहती है
उल्फ़त हो जिसे उसे वली कहते हैं