आँख अबर-ए-बहारी से लड़ी रहती है
अश्कों की रिदा मुँह पे पड़ी रहती है
दोनों आँखें हैं मेरी सावन भादों
याँ सारे बरस एक झड़ी रहती है
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ग़फ़लत में न खो उम्र कि पछताएगा
गुलशन में सबा को जुस्तुजू तेरी है
बे-दीनों को मुर्तज़ा ने ईमाँ बख़्शा
हर-चंद कि ख़स्ता ओ हज़ीं है आवाज़
बालों पे ग़ुबार-ए-शेब ज़ाहिर है अब
ऐ मोमिनो फ़ातिमा का प्यारा शब्बीर
किस तरह करे न एक आलिम अफ़्सोस
मय-ख़ान-ए-कौसर का शराबी हूँ मैं
सोज़-ए-ग़म-ए-दूरी ने जला रक्खा है
अख़्तर से भी आबरू में बेहतर है ये अश्क
आदम को ये तोहफ़ा ये हदिया न मिला
अब हिन्द की ज़ुल्मत से निकलता हूँ मैं