मय-ख़ान-ए-कौसर का शराबी हूँ मैं
क्या क़ब्र का ख़ौफ़ बू-तुराबी हूँ मैं
कहती है ये चश्म ख़ुश रक्खो न मुझे
ऐ अहल-ए-नज़र मर्दुम-ए-आबी हूँ मैं
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आँख अब्र-ए-बहारी से लड़ी रहती है
हुशियार है सब से बा-ख़बर है जब तक
असहाब ने पूछा जो नबी को देखा
सर खींच न शमशीर-ए-कशीदा की तरह
अब गर्म ख़बर मौत के आने की है
कुछ मुल्क-ए-अदम में रंज का नाम न था
हो जाती है सहल पेश-ए-दाना मुश्किल
ऐ शाह के ग़म में जान खोने वालो
अकबर ने जो घर मौत का आबाद किया
बे-जा नहीं मद्ह-ए-शह में ग़र्रा मेरा
ऐ ख़ालिक़-ए-ज़ुल-फ़ज़्ल-ओ-करम रहमत कर
इस्याँ से हूँ शर्मसार तौबा या-रब