इस्याँ से हूँ शर्मसार तौबा या-रब
करता हूँ मैं बार बार तौबा या-रब
न जुर्म का पायाँ न गुनाहों का शुमार
इक तौबा तो क्या हज़ार तौबा या-रब
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कुछ मुल्क-ए-अदम में रंज का नाम न था
बादल आ के रो गए हाए ग़ज़ब
राही तरफ़-ए-आलम-ए-बाला हूँ मैं
आँख अब्र-ए-बहारी से लड़ी रहती है
आदम को अजब ख़ुदा ने रुत्बा बख़्शा
पुतली की तरह नज़र से मस्तूर है तू
अल्लाह अल्लाह इज़्ज़-ओ-जाह-ए-ज़ाकिर
सोज़-ए-ग़म-ए-दूरी ने जला रक्खा है
बालों पे ग़ुबार-ए-शेब ज़ाहिर है अब
ला-रैब बहिश्तियों का मरजा है ये
ज़ाहिर वही उल्फ़त के असर हैं अब तक
अंजाम पे अपने आह-ओ-ज़ारी कर तू