बादल आ के रो गए हाए ग़ज़ब
आँसू नायाब हो गए हाए ग़ज़ब
जी भर के हुसैन को न रोए इस साल
आँखों के नसीब सो गए हाए ग़ज़ब
Allama Iqbal
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ऐ शाह के ग़म में जान खोने वालो
क्या दस्त-ए-मिज़ा को हाथ आई तस्बीह
ठोकर भी न मारेंगे अगर ख़ुद-सर है
आदम को अजब ख़ुदा ने रुत्बा बख़्शा
सोज़-ए-ग़म-ए-दूरी ने जला रक्खा है
अब वक़्त-ए-सुरूर- ओ फ़रहत-अंदोज़ी है
जिस पर कि नज़र लुत्फ़ की शब्बीर करें
क़तरे हैं ये सब जिस के वो दरिया है अली
गुलज़ार-ए-जहाँ से बाग़-ए-जन्नत में गए
बे-जा नहीं मद्ह-ए-शह में ग़र्रा मेरा
बे-गोर-ओ-कफ़न बाप का लाशा देखा