ठोकर भी न मारेंगे अगर ख़ुद-सर है
ज़रदार को भी फ़रोतनी बेहतर है
है मेवा-ए-नख़्ल क़द-ए-इंसाँ तस्लीम
झुकती है वही शाख़ जो बार-आवर है
Faiz Ahmad Faiz
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अब हिन्द की ज़ुल्मत से निकलता हूँ मैं
बे-गोर-ओ-कफ़न बाप का लाशा देखा
पुतली की तरह नज़र से मस्तूर है तू
अब वक़्त-ए-सुरूर- ओ फ़रहत-अंदोज़ी है
दामाद-ए-रसूल की शहादत है आज
बे-दीनों को मुर्तज़ा ने ईमाँ बख़्शा
अब ख़्वाब से चौंक वक़्त-ए-बेदारी है
शब्बीर का ग़म ये जिस के दिल पर होगा
क्या दस्त-ए-मिज़ा को हाथ आई तस्बीह
बालों पे ग़ुबार-ए-शेब ज़ाहिर है अब
बे-जा नहीं मद्ह-ए-शह में ग़र्रा मेरा