थे ज़ीस्त से अपनी हाथ धोए सज्जाद
शब को कभी राहत से न सोए सज्जाद
जब तक जिए हँसते न किसी ने देखा
चालीस बरस बाप को रोए सज्जाद
Habib Jalib
Faiz Ahmad Faiz
Rahat Indori
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Mir Taqi Mir
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Gulzar
Allama Iqbal
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दुश्मन को भी दे ख़ुदा न औलाद का दाग़
ज़ाहिर वही उल्फ़त के असर हैं अब तक
अफ़ज़ल कोई मुर्तज़ा से हिम्मत में नहीं
बरहम है जहाँ अजब तलातुम है आज
गुलशन में सबा को जुस्तुजू तेरी है
बालों पे ग़ुबार-ए-शेब ज़ाहिर है अब
बे-जा नहीं मद्ह-ए-शह में ग़र्रा मेरा
अहबाब से उम्मीद है बे-जा मुझ को
किस तरह करे न एक आलिम अफ़्सोस
आला रुत्बे में हर बशर से पाया
अश्कों में नहाओ तो जिगर ठंडे हों