गुलज़ार-ए-जहाँ से बाग़-ए-जन्नत में गए
मरहूम हुए जवार-ए-रहमत में गए
मद्दाह-ए-अली का मर्तबा आला है
'ग़ालिब'-ए-असदुल्लाह की ख़िदमत में गए
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जिस पर कि नज़र लुत्फ़ की शब्बीर करें
सर खींच न शमशीर-ए-कशीदा की तरह
खो दिल के मरज़ को ऐ तबीब-ए-उम्मत
आदम को अजब ख़ुदा ने रुत्बा बख़्शा
अब हिन्द की ज़ुल्मत से निकलता हूँ मैं
क़तरे हैं ये सब जिस के वो दरिया है अली
जो चश्म ग़म-ए-शह में सदा रोती है
उल्फ़त हो जिसे उसे वली कहते हैं
गुलशन में सबा को जुस्तुजू तेरी है
अब वक़्त-ए-सुरूर- ओ फ़रहत-अंदोज़ी है
थे ज़ीस्त से अपनी हाथ धोए सज्जाद
खींचे मुझे मौत ज़िंदगानी की तरफ़