अंजाम पे अपने आह-ओ-ज़ारी कर तू
सख़्ती भी जो हो तो बुर्द-बारी कर तू
पैदा किया ख़ाक से ख़ुदा ने तुझ को
बेहतर है यही कि ख़ाक-सारी कर तू
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हर-चंद कि ख़स्ता ओ हज़ीं है आवाज़
ऐ ख़ालिक़-ए-ज़ुल-फ़ज़्ल-ओ-करम रहमत कर
बिस्त-ओ-यकुम-ए-माह-ए-मोहर्रम है आज
अब ख़्वाब से चौंक वक़्त-ए-बेदारी है
गुलशन में सबा को जुस्तुजू तेरी है
फ़ुर्सत कोई साअत न ज़माने से मिली
अकबर ने जो घर मौत का आबाद किया
आँख अब्र-ए-बहारी से लड़ी रहती है
ज़ाहिर वही उल्फ़त के असर हैं अब तक
गुलशन में फिरूँ कि सैर-ए-सहरा देखूँ
बालों पे ग़ुबार-ए-शेब ज़ाहिर है अब
बे-दीनों को मुर्तज़ा ने ईमाँ बख़्शा