न जानों 'मीर' क्यूँ ऐसा है चिपका
नमूना है ये आशोब ओ बला का
करो दिन ही से रुख़्सत वर्ना शब को
न सोने देगा शोर उस बे-नवा का
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वाए इस जीने पर ऐ मस्ती कि दौर-ए-चर्ख़ में
हो आशिक़ों में उस के तो आओ 'मीर'-साहिब
बुत-ख़ाने से दिल अपने उठाए न गए
मैं बे-नवा उड़ा था बोसे को उन लबों के
ख़ूब है ख़ाक से बुज़ुर्गों की
तड़प है क़ैस के दिल में तह-ए-ज़मीं इस से
न समझा गया अब्र क्या देख कर
सुना है चाह का दावा तुम्हारा
न आया वो तो क्या हम नीम-जाँ भी
ताब-ओ-ताक़त को तो रुख़्सत हुए मुद्दत गुज़री
हुआ है अहल-ए-मसाजिद पे काम अज़-बस तंग
यही दर्द-ए-जुदाई है जो इस शब