क्यूँ तिरे दर्द को दें तोहमत-ए-वीरानी-ए-दिल
ज़लज़लों में तो भरे शहर उजड़ जाते हैं
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फिर वही मैं हूँ वही शहर-बदर सन्नाटा
वो दिलावर जो सियह शब के शिकारी निकले
मैं कल तन्हा था ख़िल्क़त सो रही थी
मुझे अब डर नहीं लगता
जो दे सका न पहाड़ों को बर्फ़ की चादर
भड़काएँ मिरी प्यास को अक्सर तिरी आँखें
वो लम्हा भर की कहानी कि उम्र भर में कही
अजीब ख़ौफ़ मुसल्लत था कल हवेली पर
दश्त-ए-हस्ती में शब-ए-ग़म की सहर करने को
वो शाख़-ए-महताब कट चुकी है
अब तक मिरी यादों से मिटाए नहीं मिटता
तुम्हें क्या