अपनी पर्वाज़ को मैं सम्त भी ख़ुद ही दूँगा
तो मुझे अपनी रिवायात का पाबंद न कर
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हर शय वही नहीं है जो परछाइयों में है
जहाँ पे डूब गया था कभी सितारा मिरा
नज़र मिली थी किसी बे-ख़बर से पहले भी
रंग-ए-वहशत कम नहीं ज़ख़्म-ए-तमाशा कम नहीं
इक निगाह-ए-दिलबरी मेरी तरफ़
मुझे कल मिला जो सर-ए-चमन वो तमाम नख़्ल-ए-शबाब सा
इक शम्अ सर-ए-राह जली ख़ैर हुई
ख़ुद आज़मा के भी दा'वे अजल के देखते हैं
ऐ आबला-पा और भी रफ़्तार ज़रा तेज़
गीत मेरे हैं मगर नूर-ए-सुख़न उस का है
सोहबत-ए-शब का तलबगार न होगा कोई
अख़्लाक़ से हो गई आरी दुनिया