अपनी पर्वाज़ को मैं सम्त भी ख़ुद ही दूँगा
तू मुझे अपनी रिवायात का पाबंद न कर
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सोहबत-ए-शब का तलबगार न होगा कोई
मिरे ख़याल से आगे तिरा निशाना पड़ा
हर शय वही नहीं है जो परछाइयों में है
इक निगाह-ए-दिलबरी मेरी तरफ़
घर छोड़ा बे-सम्त हुए हैरानी में
ख़ाक-ए-अग़्यार से यारब मुझे पैवंद न कर
ये बज़्म-ए-शब है यहाँ इल्म-ओ-आगही कम है
हवा-ए-तुंद के आगे धुआँ ठहरता नहीं
रंग-ए-वहशत कम नहीं ज़ख़्म-ए-तमाशा कम नहीं
नज़र मिली थी किसी बे-ख़बर से पहले भी
मौज-ए-गुल बर्ग-ए-हिना आब-ए-रवाँ कुछ भी नहीं