ऐ साहब-ए-ज़र अमीर-ए-आला तो कौन
आता है ख़याल ला-मुहाला तू कौन
जो कुछ भी मिले अता-ए-क़ुदरत से मिले
इनआ'म मुझे देने वाला तू कौन
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गीत मेरे हैं मगर नूर-ए-सुख़न उस का है
ये बज़्म-ए-शब है यहाँ इल्म-ओ-आगही कम है
घर छोड़ा बे-सम्त हुए हैरानी में
ख़ुद आज़मा के भी दा'वे अजल के देखते हैं
सोहबत-ए-शब का तलबगार न होगा कोई
ऐ आबला-पा और भी रफ़्तार ज़रा तेज़
अख़्लाक़ से हो गई आरी दुनिया
मौज-ए-गुल बर्ग-ए-हिना आब-ए-रवाँ कुछ भी नहीं
तदबीर-ए-शिफ़ा किसे बताए कोई
मिरे ख़याल से आगे तिरा निशाना पड़ा
अपनी पर्वाज़ को मैं सम्त भी ख़ुद ही दूँगा
ख़ाक-ए-अग़्यार से यारब मुझे पैवंद न कर