कितने ज़ेहनों को कर गया गुमराह
इक बड़े आदमी का छोटा-पन
Allama Iqbal
Faiz Ahmad Faiz
Mir Taqi Mir
Rahat Indori
Wasi Shah
Javed Akhtar
Parveen Shakir
Habib Jalib
Anwar Masood
Gulzar
Jaun Eliya
Mohsin Naqvi
Love Poetry
Funny Poetry
Sad Poetry
Rain Poetry
Sharabi Poetry
Friends Poetry
(363) Peoples Rate This
ढूँडने वाले ग़लत-फ़हमी मैं थे
हर शख़्स अपनी अपनी जगह यूँ है मुतमइन
हुस्न उतना एक पैकर मैं सिमट सकता नहीं
दिलों के बीच की दीवार गिर भी सकती थी
वो पता अपनी शाख़ से ज़रा जुदा हुआ ही था
चाँद की कश्ती सजी है और मैं
भूल जाने का मुझे मशवरा देने वाले
मिरे चराग़ की नन्ही सी लौ से ख़ाइफ़ है
पलक पलक सैल-ए-ग़म अयाँ है न कोई आहट न कोई हलचल
कुछ एहतियात परिंदे भी रखना भूल गए
बोलते रहते हैं नुक़ूश उस के
कुछ नौ-जवान शहर से आए हैं लौट कर