हाथ जो बहर-ए-दुआ उठे हैं झुक जाएँगे
हर नज़र तिश्ना-ब-लब हो के दुहाई देगी
आप पर्दे में छुपा लेंगी न चेहरा जब तक
ईद के चाँद की सूरत न दिखाई देगी
Allama Iqbal
Habib Jalib
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अना और अंदेशा
देखो कि दिल-जलों की क्या ख़ूब ज़िंदगी है
गुफ़्तुगू क्यूँ न करें दीदा-ए-तर से बादल
आज है अहल-ए-मोहब्बत का मुक़द्दस त्यौहार
ऑटोग्राफ
फिरते रहे अज़ल से अबद तक उदास हम
किस ने देखे होंगे अब तक ऐसे नए निराले पत्थर
कभी खोले तो कभी ज़ुल्फ़ को बिखराए है
आरती हम क्या उतारें हुस्न-ए-माला-माल की
झिलमिलाते हुए सपनों का स्वयंवर बन कर
दीदा-ए-दिल को यूँ नज़र आया
पहले तो बहुत गर्दिश-ए-दौराँ से लड़ा हूँ