न अहल-ए-मय-कदा ने मुस्कुरा कर बात की हम से
न तेरी ही जबीं से बे-रुख़ी के बल गए साक़ी
अगरचे बज़्म में सहबा भी थी मीना भी थी लेकिन
ख़ुद अपनी तिश्नगी की आग में हम जल गए साक़ी
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नुक़ूश
झिलमिलाते हुए सपनों का स्वयंवर बन कर
दुनिया सोचे शौक़ से सोचे आज और कल के बारे में
सनसनाती हुई हवा की तरह
कभी खोले तो कभी ज़ुल्फ़ को बिखराए है
पहले तो बहुत गर्दिश-ए-दौराँ से लड़ा हूँ
न पूछ दिल के ख़राबे से और क्या निकला
आरती हम क्या उतारें हुस्न-ए-माला-माल की
तेरी ख़ुश-रंग चूड़ियाँ अब तक
नग़्मा नुमा
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