मैं ने देखा जब आदमी का लहू
ज़र-परस्ती के आबगीने में
मेरा एहसास-ए-दिल धड़कने लगा
शाएरी के गुदाज़ सीने में
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आज क्या देखा ख़लाओं के सुनहरे ख़्वाब में
कितने पाकीज़ा हैं नौ-ख़ेज़ जवानी के कलस
तुम ने लिक्खा है मिरे ख़त मुझे वापस कर दो
कभी खोले तो कभी ज़ुल्फ़ को बिखराए है
हो गया हूँ हर तरफ़ बद-नाम तेरे शहर में
ओस में भीगी हुई तन्हाइयों के जिस्म से
सनसनाती हुई हवा की तरह
दुनिया सोचे शौक़ से सोचे आज और कल के बारे में
आरती हम क्या उतारें हुस्न-ए-माला-माल की
ये शब तो क्या सहर को भी शायद नहीं पता
बहुत मुख़्तसर सा तआ'रुफ़ है मेरा
तेरी ख़ुश-रंग चूड़ियाँ अब तक