कितने पाकीज़ा हैं नौ-ख़ेज़ जवानी के कलस
नज़र आता है तिरा जिस्म शिवाले की तरह
अपने गीतों के मधूबन में बुलाता है तुझे
मेरा बचपन किसी गोकुल के ग्वाले की तरह
Mir Taqi Mir
Habib Jalib
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देखो कि दिल-जलों की क्या ख़ूब ज़िंदगी है
इल्तिमास
झिलमिलाते हुए सपनों का स्वयंवर बन कर
तुम ने लिक्खा है
सुरज का अलमिया
आख़िर उस की सूखी लकड़ी एक चिता के काम आई
गुफ़्तुगू क्यूँ न करें दीदा-ए-तर से बादल
ये शब तो क्या सहर को भी शायद नहीं पता
गर्लफ्रेंड
हो गया हूँ हर तरफ़ बद-नाम तेरे शहर में
यूँ लहकता है तिरे नौ-ख़ेज़ ख़्वाबों का बदन