आख़िर उस की सूखी लकड़ी एक चिता के काम आई
हरे-भरे क़िस्से सुनते थे जिस पीपल के बारे में
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जलती रात सुलगते साए
कभी खोले तो कभी ज़ुल्फ़ को बिखराए है
झुक गईं मिल के अजनबी आँखें
ये शब तो क्या सहर को भी शायद नहीं पता
झिलमिलाते हुए सपनों का स्वयंवर बन कर
इल्तिमास
दूर पीपल की बूढ़ी शाख़ों में
रू-ब-रू सीना-ब-सीना पा-ब-पा और लब-ब-लब
पहले तो बहुत गर्दिश-ए-दौराँ से लड़ा हूँ
हम बिखर जाएँगे नग़्मों-भरे ख़्वाबों की तरह
ऑटोग्राफ
रात की भीगी पलकों पर जब अश्क हमारे हँसते हैं