आँसू जो बहें सुर्ख़ तो हो जाती हैं आँखें
दिल ऐसा सुलगता है धुआँ तक नहीं आता
Rahat Indori
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गुज़िश्ता अहल-ए-सफ़र को जहाँ सुकून मिला
किसी मरक़द का ही ज़ेवर हो जाएँ
तिरे इंतिज़ार में इस तरह मिरा अहद-ए-शौक़ गुज़र गया
न आँखें सुर्ख़ रखते हैं न चेहरे ज़र्द रखते हैं
किसी ने दूर से देखा कोई क़रीब आया
मुस्कुराती आँखों को दोस्तों की नम करना
ज़िंदगी तो सपना है कौन 'राम' अपना है
यादों के दरीचों को ज़रा खोल के देखो
ज़र्रा इंसान कभी दश्त-नगर लगता है
दिल में तो बहुत कुछ है ज़बाँ तक नहीं आता
अब कहाँ वो पहली सी फ़ुर्सतें मयस्सर हैं