अब कहाँ वो पहली सी फ़ुर्सतें मयस्सर हैं
सारा दिन सफ़र करना सारी रात ग़म करना
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इस डर से इशारा न किया होंट न खोले
तेरी महफ़िल में सितारे कोई जुगनू लाया
तिरे इंतिज़ार में इस तरह मिरा अहद-ए-शौक़ गुज़र गया
ज़र्रा इंसान कभी दश्त-नगर लगता है
जो तेरे ग़म में जले हैं वो फिर बुझे ही नहीं
मुस्कुराती आँखों को दोस्तों की नम करना
आँखों में तेज़ धूप के नेज़े गड़े रहे
यादों के दरीचों को ज़रा खोल के देखो
दिल में तो बहुत कुछ है ज़बाँ तक नहीं आता
ज़िंदाँ में भी वही लब-ओ-रुख़्सार देखते
मैं अँधेरों का पुजारी हूँ मिरे पास न आ
रौशनी वाले तो दुनिया देखें